Sunday, 31 October 2010

मंदिर-मस्जिद विवाद, एक स्थायी हल

मै  सुधीर वाडीकर अभिव्यक्ति के इस माध्यम के जरिये आज एक ऐसे विषय को छूने जा रहा हूँ जो कि बहुत ही नाजुक है , यह  विषय है राम जन्म भूमि -बाबरी मस्जिद विवाद . मेरी बात रखने से पहले मै इस मसले से जुड़े सारे पक्षों,तमाम  बुध्धिजीवियों,साधू संतों मौलवियों ,नेताओं.राजनेतिक दलों व् विषय से प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी लोगों से माफ़ी चाहूँगा क्योंकि इस  ज्वलंत विषय   पर मेरे विचार प्रगट करना "छोटा मुंह बड़ी बात" होगी.चूँकि हमारे देश में हर व्यक्ति को अपने विचार प्रगट करने कि आजादी है इसी अधिकार के तहत काफी संवेदनशील   मसले पर अपनी राय प्रस्तुत करने कि हिमाकत कर रहा हूँ
पिछले ६० वर्षों से उपरोक्त मामला न्यायलय में चल रहा था और हाल ही में  हाइकोर्ट  ने उक्त विवाद पर अपना फैसला दिया है और इस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी जाने वाली है. यानि अंतिम  फैसले के लिए फिर इंतजार. जब कोई भी विवाद न्यायलय में जाता  है और जब निर्णय आता है तो सामान्तया फैसला  एक के  पक्ष जाता  है और दूसरे के विरुद्ध  है.उपरोक्त विवाद में यही होना अपेक्षित है .अत: मेरा ऐसा मत है सभी पक्षों को  साथ में बैठ कर अपना अपना दावा छोड़कर इस विवादित ज़मीन को एक ट्र्स्ट के नाम कर देना चाहिए  और सरकारी व् गैर सरकारी  सहायता से इस जमीन पर भव्य अस्पताल बनाना चाहिए जिसमे उच्चतम तकनीक सहित सारी चिकित्सीय  सुविधाए आम आदमी को उपलब्ध हो . ताकि हिन्दू या मुसलमान नही बल्कि सारी मानव जाति  लाभान्वित   हो सके.क्योकि यदि सारे पक्ष इस बात पर सहमत हो जाते है तो  यह स्थिति सारे पक्षों के लिए विन विन स्थिति होगी अर्थात" न तू जीता और न मेरा हारा".यदि सारी मानव जाति  का कल्याण होगा तो मेरा ऐसा मानना है कि भगवान राम हो या अल्लाह दोनों ही प्रसन्न होंगे. क्योंकि मानव सेवा ही प्रभु सेवा है. और सभी धार्मिक ग्रन्थों मै लिखा है कि ईश्वर/अल्लाह  सब इन्सान के अंदर ही बसता है  यदि हम ऐसी मिसाल कायम करने में सफल होते है तो इसमे सभी पक्षों कि अहम  की  भी तुष्टि  होगी.और  दुनिया को वसुदैव कुटुम्बकम का सन्देश देने वाला यह देश पूरे विश्व में सर्वोच्य स्थान प्राप्त कर सभी के लिए एक मिसाल बन जायेगा
.मैंने  अपनी सोच के आधार पर एस विवाद को सुलझाने कि दिशा में एक सुझाव प्रस्तुत किया है और  मै समझता हूँ  कि यदि सभी पक्ष ईमानदरी से ,संकीर्णता के चोखट के बाहर आकर बिना किसी पूर्वाग्रह के,समाधान  खोजने कि नीयत  से इस पर विचार करे तो जैसे मेने उपर कहा कि सभी लोगों के लिए यह विन विन सिच्युशन होगी.इए प्रस्ताव को व्यवहार में कैसे लाना उसकी कार्यप्रणाली क्या होगी इन तमाम विषयों  पर  साथ बैठ कर विचार किया जा सकता है और ये सभी विषय अत्यंत गौण है.मुख्य मुद्दा है मानव जाति के  हित में अहम के त्याग का.क्या हमारे साधू संत, बुद्धिजीवी,मौलवी नेता राजनेता सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता पूरी मानव जाति के हित में संकीर्ण विचारों से उपर उठकर , विशाल ह्दय का परिचय देंगे तो समस्या  का सर्वमान्य  हल  अवश्य निकल आएगा. इस सम्बन्ध में गैर सरकारी सामाजिक संस्थाएं  भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है
इस सुझाव पर विचार प्रगट करने हेतु मै सभी देशवासियों को आमंत्रित करता हूँ.समस्या के समाधान   के प्रति आशान्वित हूँ. आशा करता हूँ कि भगवान राम,रहीम ,अल्लाह,मामले से जुड़े सभी पक्षों को सदबुधि देंगे .
धन्यवाद
                                                     
 सुधीर वाडीकर                  

Saturday, 30 October 2010

जिंदादिल दम्पत्ति

आज मै आप लोगों का परिचय  वाडीकर  परिवार के वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठतम युगल से करवाने जा रहा हूँ . ये हैं श्री अरविन्द वाडीकर   व् श्रीमती अंजलि वाडीकर . वाडीकर       परिवार कि   इस पीढ़ी के प्रथम  युगल.. नम्बर वन युगल   यानि हर लिहाज से नम्बर वन ही हैं चाहे वह सुन्दरता , व्यवहार कुशलता,बडप्पन,या अन्य कोई बात हो हर मामले   में  वो एक आदर्श है .
दोनों कि उम्र ७० के  उपर   है लेकिन उत्साह ऐसा कि अच्छा खासा नवयवक/नवयुवती  शरमा जाये . टच-वूड ईश्वर दोनों को लम्बी उम्र दे.  दादा का उत्साह तो देखते ही बनता है . इस उम्र में  भी नया सीखने कि चाह,अच्छा साहित्य पठने का शौक,खाने और खिलाने के शौक़ीन,संगीत   में  भी दखल, आज भी कभी कभी  सिंथेसाइजर पर हाथ आजमाते है.दोपहर में जीवन बीमा निगम सहकारी  सोसायटी में भी काम करने जाते है . आलस और दादा जैसे एक नदी के दो किनारे .उम्र के इस पड़ाव पर ऐसा जज्बा बिरले लोगों में ही देखने को मिलता है   
 हमारी वहिनी कि याददाश्त इस उम्र में  भी गजब की  है.घर भी इतना साफ सुथरा व् हर चीज सलीके से रखी हुई मिलेगी. हालांकि  इन दिनों उनकी हाथ की  उँगलियों में अकडन के कारण  थोड़ी परेशान जरूर है लेकिन जरा भी ठीक लगा की फिर उसी उत्साह से घर के  काम -काज  में जुट जाती है परिवार में बड़े है तो उनका आचार, विचार व् व्यवहार भी बड़ों जैसा ही है.ईश्वर के प्रति दोनों  ही आस्था रखते है लेकिन किसी आडम्बर में विश्वास नही रखते. दूसरों के दुखों के प्रति भी उतने ही संवेदनशील भी है.  
 .
मुझे उन दोनों को पिछले ५-६ सालों में  और नजदीक से जानने का अवसर  मिला . मै पांच साल तक उनके मकान में  किराये से रहा. उनके  बडप्पन के बहुत सारे द्रष्टान्त है जिनमे से मै कुछ का यंहा उल्लेख करना चाहूँगा.
मै जब किराये से उनके मकान में  रहने  आया तो मेरे से पहले जो किरायेदार रहते थे उनसे भी कम किराया   मुझसे लेते थे मै लगभग पांच साल उनके मकान में  रहा पर इन पांच सालों में कभी भी किराया नही बढ़ाया .

हम लोग मकान खरीदने का विचार कर रहे थे तो  धूप में  भी हमारे साथ चलने को तैयार रहते थे.
एक साल बाद मेरी पत्नी का बस एक्सीडेंट हो गया था उस संकट कि घडी में  दादा वहिनी हमारे लिए बहुत बड़े संबल थे. .वहिनी को पैर  में  तकलीफ थी पर फिर भी घंटो अस्पताल में पत्नी के पास बैठी  रहती  थी.
दादा वहिनी  हमारे  लिए माता पिता के स्थान पर है आज भी हम जब किसी समस्या को लेकर  उनके पास जाते है तो वह उसका उचित निराकरण करते है और सही मार्गदर्शन भी देते है.

दादा वहिनी कि जिन्दादिली को सलाम.              

Thursday, 28 October 2010

.श्री टेम्बे सा एक निर्मल व्यक्तित्व

मै आज आप लोंगो का परिचय एक ऐसे  व्यतित्व से कराने जा रहा हूँ जिसका नाम है श्री रामचन्द्र राव टेम्बे  है . आज वो हम लोंगो के बीच में नही हैं. .वेसे तो यह व्यक्तित्व हम आप की तरह ही साधरण व्यक्ति थे ए. जी.ऑफिस में नौकरी करते थे. भरापुरा परिवार था . आम  आदमी  की तरह सामान्य सा जीवन यापन क्रर  रहे थे . 


यंहां  मै उनके व्यक्तित्व के बारे में आप लोंगो को बताना चाहता हूँ.जैसा उनका नाम था नाम के अनुरूप ही उनका व्यक्तित्व था. रामायण में भगवान राम के चरित्र को कर्तव्य बोध के रूप में प्रस्तुत किया गया है. अर्थात राम एक कर्तव्य बोध के प्रतिक  के रूप में है.एक व्यक्ति का मां,पिता पत्नी ,भाई,समाज,देश/राज्य गुरुजन के प्रति क्या कर्तव्य है
.श्री टेम्बे सा. भी अपने कर्तव्य के प्रति काफी सजग थे. वैसे उनकी प्रष्टभूमि काफी संपन्न घराने से थी.लेकिन समय के चक्र के कारण बाद में  अभावों   का भी स्वाद चखना पड़ा . लेकिन उन्हें इस बात का लेश  मात्र भी रंज  नही था . जैसे भी थे हर हाल में खुश थे.घर में कमाने वाले वो अकेले साथ में भाई बहनों की पढाई /शादी की जिम्मेदारी, लेकिन मजाल है जो चेहरे पर शिकन हो. उन्हें कभी किसी से कोई शिकायत थी ही नही.यंहां  एक बात अवश्य  कहना चाहूँगा की इस कर्तव्य निर्वाहन में उनकी धर्मपत्नी भी बराबर की साझीदार थी.शायद उनके सहयोग के बिना जिम्मेदारी जिम्मेदारी  अच्छे से निभाना असंभव था.मेरे   बारह वर्षो के सहवास मे मेने  उन्हें कभी गुस्सा होते हुए नही देखा. राग क्रोध द्वेष घृणा लालच   ये सारे शब्द शायद उनके शब्दकोष में ही नही थे.


इतने  वर्षों में मुझे याद नही है कि  उन्होंने कभी  किसी का अपमान किया हो या किसी के प्रति अपमान जनक  शब्दों का प्रयोग किया हो. ऐसा लगता है   की उनको  को  अपशब्द  या किसी के प्रति द्वेष का भाव , ,स्पर्श भी नही कर पाया  .वो  अक्सर कहा   करते  थे  की  इन्सान को कितना भी गुस्सा आये लेकिन उसे  अपना विवेक कभी भी नही खोना चाहिए इन्सान को हमेशा अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए. और ऐसा वह  न केवल कहते थे  बल्कि इन बातो  को स्वयं भी अमल में लाते थे 
 ऑफिस में  टेम्बे सा  जब  पहुचते    थे तो लोग अपनी घडी  मिलाते थे  क्योंकि  अपनी ४० वर्षों की नौकरी में कभी भी ऑफिस लेट नही  पंहुचे .हालाँकि कभी कभी नवरात्री के समय इस बात को लेकर उनकी पत्नी अवश्य मजाक में कहती थी एक दिन ए.जी.ऑफिस में लेट पहुंचोगे  तो पहाड़ नही टूट पड़ेगा
 लेकिन उन्होंने अपने सिदान्तों  से कभी समझोता नही किया.. जितने वे सिदान्त  प्रिय थे उतने ही संवेदन शील भी थे. वे हमेशा कर्म में विश्वास रखते थे. ईश्वर के प्रति श्रद्धा अवश्य थी लेकिन किसी प्रकार के आडम्बर में  विश्वास नही रखते थे  
एक बार वह कोल्हापुर से पूना बस से आ रहे थे परन्तु खंडाला घाट में उनकी बस का एक्सीडेंट हो गया  बस ८ooफीट नीचे खाई में गिर गयी दोनों पति पत्नी को काफी चोटें आई लेकिन ६-८ माह के बाद दोनोंबिलकुल ठीक हो गए .उन दोनों को देखकर कोई यह नही कह सकता था की इतनी बड़ी दुर्घटना इन दोनों   के साथ घटी होगी. इस दुर्घटना के कुछ सालों के बाद  उनको एक जबरदस्त दिल का दौरा भी पड़ा लेकिन उनकी इच्छा शक्ति के बूते पर वो फिर उठ खड़े हुए .

९जून  १९९० को उन्हें दिल का दौरा पड़ा. वो  सोला पहने हुए पूजा कर रहे थे और  व् उसी अवस्था में  ही ईश्वर के सामने गिर पड़े और टेम्बे सा  हम सब को छोड़कर चले गए. 
ऐसी   मौत  तो टेम्बे सा  जैसे पुण्यात्मा को ही नसीब  हो सकती है . राम के आदर्शों को जीने वाले रामचन्द्र  टेम्बे आज हमारे  बीच नही है लेकिन उनका आशीर्वाद सदेव हमारे साथ है.
मै इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ कि   इतने बड़े व्यक्तित्व के साथ कुछ सालो तक मेरा भी सानिध्य रहा  
 टेम्बे सा  जैसे पूजनीय /वन्दनीय  व्यक्तित्व को शत शत नमन 
     

Wednesday, 27 October 2010

तोतले लोग ऐसे ही बोलते हैं

जून १९८१ में हम लोग ग्वालियर से इंदौर ट्रान्सफर हो कर आये थे .आई ,बाबा व् मोहिनी (छोटी बहन) व् साथ में हमारी नन्ही व् प्यारी   बेटी स्वाति, हम सभी लोग साथ में रहते थे. हमारे एक मित्र  श्री सिद्दीकी  जो भारतीय जीवन बीमा निगम में नौकरी करते हैं,  कभी कभी घर पर आते रहते थे. श्री सिद्दीकी और हमारी मित्रता १९७२ से है जब हम नौकरी  में लगे लगे ही थे. हालंकि  वो बीमा कार्यालय में थे और मै, बैंक में, फिर भी हमारी  मित्रता प्रगाढ़ थी   और  आज भी वैसे ही कायम है. सिद्दीकी न केवल पारिवारिक मित्र हैं बल्कि परिवार के सदस्य है.
हम लोग जब इंदौर आये थे तो स्वाति लगभग ३-४ साल की रही होगी. नन्ही चुलबुली व् बड़ी बड़ी आँखों वाली स्वाति सभी को अपनी और आकर्षित कर ही लेती थी  सिद्दीकी जब भी आते थे तो अक्सर स्वाति से खेलते रहते थे स्वाति भी उनसे बराबरी  से तर्क करती व् दोनों में नोक झोंक चलती रहती थी.एक बार की बात है दोनों  अन्ताक्षरी  खेल रहे थे. स्वाति भी अपनी बाल बुद्द्धि का पूरा पूरा  उपयोग करते हुए बराबरी से  खेल रही थी.

स्वाति के ऊपर ट शब्द आया और उसे ट से गाना गाना था . लेकिन उसे ट से गाना याद नही आ रहा था पर वह हार मानने को तैयार नही थी.उसने त से गाना शुरू किया जिस पर हमारे मित्र ने आपत्ति ली और कहा की गाना ट से ही गाना पड़ेगा .स्वाति का बाल मन भी सहज रूप से हार स्वीकार करने को तैया नही था उसने तर्क दिया कि चूँकि  तोतले लोग ट को त ही बोलते हैं इसलिए उसने त से गाना गया है जो मान्य किया जाना चाहिए
स्वाति के उस बाल बुद्धि तर्क को सुनकर हम सभी लोग हँसे बिना नही रह सके.सिद्दीकी साहब भी एक बार तो निरुत्तर हो गए शायद उन्हें भी इस तर्क की उम्मीद नही थी.स्वाति के जिद के आगे सिद्दीकी साहब को झुकना पड़ा.




 

Monday, 25 October 2010

श्रद्धा,आस्था,विश्वास = ईश्वर

ईश्वर  में   आस्था रखना या नही  रखना  हरेक का व्यतिगत मत हो सकता है . आस्था तो दूर की बात है कुछ लोगों को ईश्वर के अस्तित्व के बारे मे भी  शंका हो सकती है . और यह बहस का मुद्दा भी हो सकता है .और हो सकता है इस  बहस का अंत आपकी कल्पना से ज्यादा भयानक भी हो सकता है लेकिन एक बात तो अवश्य है ईश्वर को अपने अस्तित्व को सिद्ध करने या मनवाने हेतु चमत्कार तो दिखाना ही पड़ता है बिना चमत्कार कोई भी ईश्वर के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकार नहीं  कर सकता और करे भी क्यों .  आखिर  श्रद्धा किसी के भी प्रति यूँ ही अपने आप तो  पैदा नही हो सकती.
चमत्कार  होने से कभी कभी  अंध श्रद्धा  भी पैदा  हो सकती है. किसी विशेष स्थान पर किसी व्यक्ति विशेष के साथ  कुछ  चमत्कार हुआ है तो उस स्थान पर सभी के साथ चमत्कार होना  चाहिए ऐसा मेरा मानना है , लेकिन व्यवहार में   ऐसा होता नही है.अंध श्रद्धा रखने वाले किसी व्यक्ति से आप पूछेंगे तो यही तर्क देगा की पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार भोग तो भोगना ही पड़ेंगे . या यह भी कह सकते है की सच्चे मन से ईश्वर को याद करने से ही मनोकामना पूरी होती है . हो सकता है तुमने सच्चे मन से भगवान को याद नही किया होगा. अब मन सच्चा था या झूठा इस बात का फैसला कोन  करेगा.
मेरा सिर्फ इतना ही कहना है ईश्वर के सामने मथ्था टेकने के बाद भी यदि आपके कष्ट कम नही  हो सकते है और आपको अपने पूर्व जन्म के अनुसार ही भोग  भोगना है तो ईश्वर का होना या ना होना कुछ मायने नही  रखता .कुछ लोग एस सम्बन्ध में  यह  भी तर्क दे सकते है की ईश्वर की आराधना करने से आपको दुखों को सहने की शक्ति मिलती है . लेकिन मेरा  ऐसा मानना है की यदि आप ईश्वर भक्ति के बजाय आपके रूचि के किसी कार्य मै  भी अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो भी आपको दुःख की अनुभूति कम होगी.सीधी सी बात है अपने मन को अपने रूचि के कार्य मै लगाओगे तो ध्यान अपने आप दूसरी तरफ चला जायगा.

उपरोक्त कथन से मेरा आशय ईश्वर के अस्तित्व को नकारना नही है .क्योंकि मै भी आम लोंगो की तरह ही धर्म भीरु हूँ. हमारे संस्कार भी ऐसे पड़े है की हम चाहे जितनी बाते कर ले पर ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत नही जुटा पाते है.हम रोज पूजा करते है शुभ कार्य हो अथवा उत्सव हो ईश्वर की पूजा अवश्य करते है. लेकिन पूजा करते समय मन अवश्य भटकता  रहता है.  शायद मै  यह बात स्वीकार कर रहा हूँ और लोग शायद यह बात स्वीकार नही करेंगे. 

चमत्कार की मेने ऊपर बात की है तो ऐसी एक घटना जो मेरे साथ घटी उसका यंहा उल्लेख करना चाहूँगा. मुझे सिगरेट पीने की आदत थी मैंने लगभग १०-१२ साल तक सिगरेट पी. लेकिन सिगरेट छोड़ी तो   तम्बाकुवाला   गुटका शुरू कर दिया. गुटके की तो ऐसी आदत लग गई थी छूटने का नाम ही नही लेती थी बहुत कोशिश की पर आदत छूट  नही पाई. गुटका भी लगभग १२-१५ साल खाया. सारे दाँत  सड़ने लग गए व्  पीले पड गए  थे.

एक बार शिर्डी  के साईंबाबा के दर्शन के लिए परिवार के साथ गया था.  पता  नहि क्या हुआ दर्शन करके बाहर  आया और वो दिन है और आज का दिन है सिगरेट/गुटका को हाथ  भी नहि लगाया इस  बात को भी आज दस साल हो गए गुटका की इच्छा ही नही हुई . बल्कि लोगों को गुटका खाते हुए देखता हूँ , तो उन लोगों की बुद्धि पर  तरस  आता है. जानबूझकर लोग कैसे कचरा खाते रहते है.
केवल दर्शन करके बहर निकला हूँ और गुटके की आदत छूट गई.इसे  मै केवल चमत्कार ही मानता हूँ इसे  भले ही आप मेरी अंध श्रद्धा कहे या जो भी नाम देना चाहें लेकिन मै इसे  साईंबाबा का ही चमत्कार मानता हूँ. वैसे भी लोग चमत्कार  को ही नमस्कार करते हैं .
जहाँ श्रद्धा की बात आती है वहां लेकिन, किन्तु, परन्तु, शब्द  कोई मायने नहीं रखते हैं
ईश्वर को मानना या नहीं मानना , उसके अस्तित्व को स्वीकार करना या न  स्वीकारना  अपनी अपनी मर्जी, श्रद्धा,विश्वास,अनुभव  व् अनुभूति  पर निर्भर  है.   

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Friday, 22 October 2010

माय डैड

  • मेरे पिताजी  ने ३१दिसम्बर १९९९ को अंतिम साँस ली थी वेसे जब उनका देहांत हुआ तब उनकी आयु लगभग ९० वर्ष थी वेसे उनको कोई बीमारी नही थी लेकित कहते है न की ओल्ड एज ही अपने आप में बड़ी बीमारी है माँ के देहांत के बाद लगभग दस वर्ष तक वह जीवित रहे  हम लोग उन्हें बाबा कहते थे
  • हम लोग  ग्वालियर में रहा करते थे . ग्वालियर में सर्दी भंयकर पडती है. कभी कभी तापमान शुन्य से भी नीचे चला जाता था  बाबा  को सर्दी वैसे ही बहुत सताती थी.नहाना ! और वो भी ऐसे मौसम में ना बाबा ना.हम लोग उनको नहाने के लिए कहते तो पहले तो मना ही करते थे. लेकिन ज्यादा जोर दिया तो हमारी संतुष्टि के बाथरूम में जाकर नहाने की एक्टिंग करते थे वैसे वो हमारे  बाप तो  थे ही
  • एक बार काफी दिनों तक भयंकर सर्दी पड़ी बाबा को तो नहाने के नाम से जैसे चिढ थी. लगभग आठ दस  दिन हो गए थे  बिना नहाये हुए  मैंने  ने काफी समझाने की कोशिश की नहालो अच्छा लगेगा .लेकिन बाप हठ  के आगे मुझे झुकना पड़ा .आठ दस दिन और इसी तरह निकल गए . आखिर मेने भी एक दिन जिद पकड़ ली की आज तो नहाना ही पड़ेगा .मैंने सरसों के तेल से बाबा की  काफी देर तक मालिश की फिर अच्छे गरम पानी से उनको नहलाया फिर टॉवेल से बदन पोछने लगा तब वो अचानक भावुक हो गए और बोले की इससे ज्यादा सेवा श्रवण कुमार ने भी  नहीं की होगी.
  • बाप रे!  बाबा के वे शब्द सुनकर मै  एकदम अवाक् रह गया .एक बाप उसके बेटे की तुलना श्रवण कुमार से कर दे , बेटे के लिए इससे बढ़कर कोई आशीर्वाद हो ही नहीं सकता .मै भावुक हो गया और मेरे आँखों से आंसू छलक पड़े.आज भी उनके कहे वाक्यों को याद करता हूँ तो लगता है मेरा  जीवन तो धन्य हो गया.

 
    

Wednesday, 20 October 2010

JAJBA

Few years back I had seen one movie Waqt. In which it was shown that there is difference between lips and cups and how the life of a person changes.but in the end like other hindi films it ends well with smiling faces of all family in a group photo.
But in real life changes do take place in one's life but some of them are so unfortunate that changes make their life miserable.Army/air force/navy personnel and there are so many civilians to whom we do not are the live examples of this situations.security personnel do have the reasons of such happenings, but some civilians for no reasons compelled to lead miserable life.Hale and hearty person suddenly confined to bed only.They are bound to live dependable life for years together.

I know one such lady , she was hale and hearty and  in one road accident she had spinal injury now she  is  using  wheel chair that too with the help of others Some body has to make her to sit  on the wheel chair .Her lower limbs are affected and she does not have sense from waist downwards.Her sensory systems damaged.She has two daughters  one is married and other one is doing M.Tech, her husband is working in bank as manager.Thelady is suffering from paraplegia .Treatment to paraplegia is physiotherapy. But in spite of all possible best treatment no improvement. On the contrary day by day things are getting worse.

Her younger daughter and her husband are looking after her. They have kept  maid servant who is also looking after her.But I must salute to her will power which the only Strong point which has kept her alive After sitting on wheel chair she does practically every thing which is with in her reachShe is suffering since last five years.Normally this type patients go in to depression, but she has kept her hopes alive.

USKE JAJBE KO SALAM

जंगल की हवा

यह कहानी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति  की है जिसकी प्रष्टभूमि किसी छोटे गाँव  से है व् जो
किसी  निम्न माध्यमवर्गीय परिवार से है.
 बात १९७० की है इसी प्रष्ठभूमि के हमारे मित्र भोपाल में नौकरी करते थे नई नौकरी नया शहर .सामंजस्य स्थापित करने में थोडा वक्त तो लगेगा  ही.भोपाल बस स्टेंड के सामने एक पेगोडा होटल हुआ करता था . उस के द्वार  पर एक अच्छी पोषक साथ में सर पर साफा पहने दरबान खड़ा रहता था जो हर आगन्तुक का अभिवादन करता था . उन दिनों यह होटल निम्न व् मध्धमवर्गीय लोगों को आकर्षित करता था  हमारे मित्र भी इस आकर्षण से अछूते नही थे लेकिन पैसा पास होते हुए  भी प्रष्ठभूमि के कारण मन में  हीन भावना का डर था जिसके कारण होटल में अंदर जाने की हिम्मत नही जुटा  पा  रहे थे
एक दिन मन में ठान लिया आज तो होटल में अंदर जा कर  ही  मानेगे . शाम के समय तैयार होकर होटल में जाने के लिए निकले होटल के सामने पहुंचे लेकिन फिर हिम्मत नही जुटा पाए और आगे बढ़ गये .दोबारा  फिर हिम्मत जुटाई पर बात फिर भी नही बनी
लेकिन इस बार तो ठान ही लिया चाहे  जो हो आज तो अंदर जा कर ही रहेंगे .पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढे दरबान के सामने भी पहुँच गए और दरबान ने जेसे ही नमस्ते किया मामला फिर गड़बड़ा गया और दरबान के नमस्ते का  जबाब नमस्ते  से देकर फिर आगे बढ़ गए और सीधे घर आ गए दाल चावल खाया और सो गए.

इस घटना के सन्दर्भ में मुझे किसी कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आती है " बहुत घबराई है जंगल की हवा , जब से शहर आई है जंगल की हवा "      

          

Tuesday, 19 October 2010

वजन कम करना

बात उन दिनों की हे जब १९७२  में मैं  दिवाली की छुट्टियों में ग्वालियर से अशोकनगर राज्य परिवहन की बस से
यात्रा कर रहा था उन दिनों में आज की तरह वतानिकुलित व् सुसज्जित बसे नहीं चला  करती थी राज्य परिवहन की बस में होर्न को छोड़कर सब कुत्छ बजता  था . इस  के अलावा गंत्य्व  पर कब  पहुचेगी ये शायद ईश्वर ही जानता था .उन दिनों राज्य परिवहन की बस से यात्रा करना  किसी जोखिम उठाने  से कम नहीं था. परन्तु आम जनता   के पास दूसरा विकल्प भी नहीं था. 
बस समय से रवाना  हुई लेकिन रस्ते में हमेशा  की तरह कुछ तकनिकी खराबी आ गयी और बस रुक गयी चालक बोला धक्का लगाना पड़ेगा.बस में अधिकतर यात्री अनपढ़ तथा गांववाले ही थे और उन सभी लोगों में मैं ही पढ़ा लिखा था. परिचालक ने सभी यात्रियों से कहा की उतरकर धक्का लगाना पड़ेगा केवल महिलाओं व् मुझे छोड़कर सभी यात्री उतरकर धक्का लगा रहे थे मैं पढ़े लिखे होने का दंभ पाले हुए बस में ही बैठा रहा .यह बात शायद परिचालक को अच्छी नहीं लगी उसने झल्लाते हुए मुझसे कहा "" धक्का नहीं लगा सकते तो कम से कम बस से उतरकर वजन ही कम कर दो."मुझे उसकी यह बात  अच्छी नहीं लगी और में अपमानित महसूस करने लगा लेकिन शायद वह सही था इसीलिए मैं  खिसियाता हुआ बस से उतर गया और बस को धक्का लगाने  लगा.

आज इतने सालो बाद भी इस   घटना को याद करता हूँ  तो लगता है कंडक्टर बिलकुल सही था.अब यदि धक्का लगाने का मौका आता है तो सबसे पहले मैं  उतरकर धक्का लगता हूँ.  आज इतने सालों के बाद भी कंडक्टर की वह सीख नहीं भूल पाया हूँ . 

Monday, 18 October 2010

Co- incidence(Accident)

As a matter of fact we are not used to hear this title.Tittle sounds unusual. I purposely given this title for the reasons as under:

We are two brothers. My elder brother who is twelve years elder to me.Since we lost our parents long back so for all practical purpose for me at least ,my brother is in place of father.At this moment that is less relevant.My bhabhi was a chronic patient of diabetes and she was bed ridden for almost ten years.For  what ever little movement or for call of nature she used to go by wheel chair only.She was occupant of wheel chair for almost of decade or so.After my brother's retirement they shifted to Chasnala dist Dhanbad ( Jharkhand) where their elder son is working with SAIL.

On 3rd of June,05 my bhabhi was admitted in hospital and she went in Coma.and on 7th of June,05 she breathed her last.So we can say  wheel chair which has an occupancy for last ten years at last vacated.
Now the story starts. On 3rd June,05 my wife left for Gwalior by luxury Bus for her onward journey to Delhi with her brother after a halt at Gwalior.The same night the Bus which was carrying my wife met with an accident and my wife got spinal injury. in medical terminology it is called paraplegia.To understand for a layman we can say that her lower limbs affected i.e means from waist downwards she lost the sense. She does not have sense even of toilet and bathroom.Now she is bed ridden and her movements( not even call of nature as her sensory nerves are completely damaged ) she was left with no option but to occupy wheel chair.

This is a co-accident as I would call it, that the day i.e on 3rd June,05 the chair was vacated and after some usual time as normally happens in case of transfer,my wife took the charge of wheel chair from my bhabhi.

See what is happened is happened, but my Ernest request with folded hand to Almighty that the game of "Handing Taking over" should now come to THE END.