जंगल की हवा
यह कहानी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति की है जिसकी प्रष्टभूमि किसी छोटे गाँव से है व् जो
किसी निम्न माध्यमवर्गीय परिवार से है.
बात १९७० की है इसी प्रष्ठभूमि के हमारे मित्र भोपाल में नौकरी करते थे नई नौकरी नया शहर .सामंजस्य स्थापित करने में थोडा वक्त तो लगेगा ही.भोपाल बस स्टेंड के सामने एक पेगोडा होटल हुआ करता था . उस के द्वार पर एक अच्छी पोषक साथ में सर पर साफा पहने दरबान खड़ा रहता था जो हर आगन्तुक का अभिवादन करता था . उन दिनों यह होटल निम्न व् मध्धमवर्गीय लोगों को आकर्षित करता था हमारे मित्र भी इस आकर्षण से अछूते नही थे लेकिन पैसा पास होते हुए भी प्रष्ठभूमि के कारण मन में हीन भावना का डर था जिसके कारण होटल में अंदर जाने की हिम्मत नही जुटा पा रहे थे
एक दिन मन में ठान लिया आज तो होटल में अंदर जा कर ही मानेगे . शाम के समय तैयार होकर होटल में जाने के लिए निकले होटल के सामने पहुंचे लेकिन फिर हिम्मत नही जुटा पाए और आगे बढ़ गये .दोबारा फिर हिम्मत जुटाई पर बात फिर भी नही बनी
लेकिन इस बार तो ठान ही लिया चाहे जो हो आज तो अंदर जा कर ही रहेंगे .पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढे दरबान के सामने भी पहुँच गए और दरबान ने जेसे ही नमस्ते किया मामला फिर गड़बड़ा गया और दरबान के नमस्ते का जबाब नमस्ते से देकर फिर आगे बढ़ गए और सीधे घर आ गए दाल चावल खाया और सो गए.
इस घटना के सन्दर्भ में मुझे किसी कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आती है " बहुत घबराई है जंगल की हवा , जब से शहर आई है जंगल की हवा "
3 Comments:
This problem is with all of us who come from not to well to do background, in varying degrees. How true the story is.
Well, I can relate with this incident when I had a chance to travel in business class and was unable to decide whether I should or shouldn't... Very interesting write up
I think it's just a phase...and I am glad i am way over that !
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