Monday 25 October 2010

श्रद्धा,आस्था,विश्वास = ईश्वर

ईश्वर  में   आस्था रखना या नही  रखना  हरेक का व्यतिगत मत हो सकता है . आस्था तो दूर की बात है कुछ लोगों को ईश्वर के अस्तित्व के बारे मे भी  शंका हो सकती है . और यह बहस का मुद्दा भी हो सकता है .और हो सकता है इस  बहस का अंत आपकी कल्पना से ज्यादा भयानक भी हो सकता है लेकिन एक बात तो अवश्य है ईश्वर को अपने अस्तित्व को सिद्ध करने या मनवाने हेतु चमत्कार तो दिखाना ही पड़ता है बिना चमत्कार कोई भी ईश्वर के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकार नहीं  कर सकता और करे भी क्यों .  आखिर  श्रद्धा किसी के भी प्रति यूँ ही अपने आप तो  पैदा नही हो सकती.
चमत्कार  होने से कभी कभी  अंध श्रद्धा  भी पैदा  हो सकती है. किसी विशेष स्थान पर किसी व्यक्ति विशेष के साथ  कुछ  चमत्कार हुआ है तो उस स्थान पर सभी के साथ चमत्कार होना  चाहिए ऐसा मेरा मानना है , लेकिन व्यवहार में   ऐसा होता नही है.अंध श्रद्धा रखने वाले किसी व्यक्ति से आप पूछेंगे तो यही तर्क देगा की पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार भोग तो भोगना ही पड़ेंगे . या यह भी कह सकते है की सच्चे मन से ईश्वर को याद करने से ही मनोकामना पूरी होती है . हो सकता है तुमने सच्चे मन से भगवान को याद नही किया होगा. अब मन सच्चा था या झूठा इस बात का फैसला कोन  करेगा.
मेरा सिर्फ इतना ही कहना है ईश्वर के सामने मथ्था टेकने के बाद भी यदि आपके कष्ट कम नही  हो सकते है और आपको अपने पूर्व जन्म के अनुसार ही भोग  भोगना है तो ईश्वर का होना या ना होना कुछ मायने नही  रखता .कुछ लोग एस सम्बन्ध में  यह  भी तर्क दे सकते है की ईश्वर की आराधना करने से आपको दुखों को सहने की शक्ति मिलती है . लेकिन मेरा  ऐसा मानना है की यदि आप ईश्वर भक्ति के बजाय आपके रूचि के किसी कार्य मै  भी अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो भी आपको दुःख की अनुभूति कम होगी.सीधी सी बात है अपने मन को अपने रूचि के कार्य मै लगाओगे तो ध्यान अपने आप दूसरी तरफ चला जायगा.

उपरोक्त कथन से मेरा आशय ईश्वर के अस्तित्व को नकारना नही है .क्योंकि मै भी आम लोंगो की तरह ही धर्म भीरु हूँ. हमारे संस्कार भी ऐसे पड़े है की हम चाहे जितनी बाते कर ले पर ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत नही जुटा पाते है.हम रोज पूजा करते है शुभ कार्य हो अथवा उत्सव हो ईश्वर की पूजा अवश्य करते है. लेकिन पूजा करते समय मन अवश्य भटकता  रहता है.  शायद मै  यह बात स्वीकार कर रहा हूँ और लोग शायद यह बात स्वीकार नही करेंगे. 

चमत्कार की मेने ऊपर बात की है तो ऐसी एक घटना जो मेरे साथ घटी उसका यंहा उल्लेख करना चाहूँगा. मुझे सिगरेट पीने की आदत थी मैंने लगभग १०-१२ साल तक सिगरेट पी. लेकिन सिगरेट छोड़ी तो   तम्बाकुवाला   गुटका शुरू कर दिया. गुटके की तो ऐसी आदत लग गई थी छूटने का नाम ही नही लेती थी बहुत कोशिश की पर आदत छूट  नही पाई. गुटका भी लगभग १२-१५ साल खाया. सारे दाँत  सड़ने लग गए व्  पीले पड गए  थे.

एक बार शिर्डी  के साईंबाबा के दर्शन के लिए परिवार के साथ गया था.  पता  नहि क्या हुआ दर्शन करके बाहर  आया और वो दिन है और आज का दिन है सिगरेट/गुटका को हाथ  भी नहि लगाया इस  बात को भी आज दस साल हो गए गुटका की इच्छा ही नही हुई . बल्कि लोगों को गुटका खाते हुए देखता हूँ , तो उन लोगों की बुद्धि पर  तरस  आता है. जानबूझकर लोग कैसे कचरा खाते रहते है.
केवल दर्शन करके बहर निकला हूँ और गुटके की आदत छूट गई.इसे  मै केवल चमत्कार ही मानता हूँ इसे  भले ही आप मेरी अंध श्रद्धा कहे या जो भी नाम देना चाहें लेकिन मै इसे  साईंबाबा का ही चमत्कार मानता हूँ. वैसे भी लोग चमत्कार  को ही नमस्कार करते हैं .
जहाँ श्रद्धा की बात आती है वहां लेकिन, किन्तु, परन्तु, शब्द  कोई मायने नहीं रखते हैं
ईश्वर को मानना या नहीं मानना , उसके अस्तित्व को स्वीकार करना या न  स्वीकारना  अपनी अपनी मर्जी, श्रद्धा,विश्वास,अनुभव  व् अनुभूति  पर निर्भर  है.   

4 Comments:

At 25 October 2010 at 04:06 , Blogger Greatsays said...

Difficult to say yes or no to the existence of God. But I have somehow started believing the philosophy of "Ekatmatavad" which say the God and man are one.. "Aham Brahmasmee". The God exists because "I" perceive him to exist and whatever is associated with God will vanish the day "I" cease to be there.

So I think everything is in the mind, as our scriptures have said "look within" and on which the whole Yoga is based.

 
At 25 October 2010 at 10:09 , Blogger sudhir said...

Lot of thanks for reading and understanding, what I want to communicate and giving most appropriate comments.
Thanku once again

 
At 25 October 2010 at 23:36 , Blogger Genie said...

I agree here, I too believe that there exists a supreame power, but the need to pray to it everyday...that is our choice and i believe in that old saying 'Work is workship'.

If just praying to God would have helped, no one would have done their work....all would be chanting all life.

But again it's just a choice to pray....no one is at fault here!

Cheers,
Genie

 
At 27 October 2010 at 02:57 , Blogger sid said...

I truly believe that there is a power which time and again makes us go through humbling experiences, which gratifies our small yet honest works and which belittles us whenever we try to take the entire credit of our success.
For me, parents are the closest silhouettes of the god and if they are happy with our deeds, who the hell cares about rest of the world.

 

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