Tuesday, 31 May 2011

कैकयी - खलनायिका ?

रामायण की कहानी हर हिन्दुस्तानी ने पढ़ी या सुनी अवश्य है ! कोई भी हिन्दुस्तानी रामायण से अनजान नहीं है !इसे यदि एक कहानी के रूप में देखें तो राम इस कहानी का नायक है ! जिसमे एक आदर्श पुत्र ,पति , राजा, भाई आदि के गुण है ! खलनायक  के रूप में रावण ,कुम्भकर्ण ,मेघनाथ ,शूर्पनखा आदि लोगों को रख सकते हैं !नायिका के रूप में सीता का नाम लिया जा सकता है ! चरित्र पात्रों की काफी लम्बी फेहरिस्त हो सकती है !

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कैकयी  ने  राजा दशरथ से दो वर मांगे जिसके अनुसार  राम को चौदह वर्षों का वनवास और कैकयी के अपने पुत्र भरत को राज गद्दी !हम सभी लोग राम सीता एवम हनुमान को ईश्वर के रूप में आज भी मानते है ! इन लोगों के अलावा रामायण के किसी पात्र को समाज द्वारा   ईश्वर का दर्जा नहीं दिया गया ! अर्थात बाकि सभी पात्र सामान्य व्यक्ति थे एसा माना जाना चाहिए  !तो  अब यदि कैकयी ने मंथरा के कहने पर अपने पुत्र  को अयोध्या का राजा के रूप देखने का सपना देखा तो इसमें गलत क्या है ! कोई भी मां अपने बेटे को ऊँचे पद पर देखना चाहती है ! और इसमे कुछ भी गलत नहीं है ! यह बिलकुल सामान्य सी बात है ! किसी भी सामान्य मां के द्रष्टिकोण से देखें तो  कैकयी   का व्यवहार बिलकुल ही सामान्य कहा जा सकता है और कम से कम निंदनीय तो बिलकुल भी नहीं है ! बल्कि एक सामान्य मां से इसी प्रकार का व्यवहार अपेक्षित है ! चूँकि रामायण सुनाने वालों ने अथवा चित्रित करने वालों ने हमेशा ही कैकयी अथवा मंथरा को खलनायिका के रूप में ही प्रस्तुत किया है! बुद्धिजीवियों द्वारा भी  सामान्य मां के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर इन चरित्रों को प्रस्तुत नहीं किया, इसी लिए आज भी कैकयी अथवा मंथरा जैसे पात्रों को समाज ने  खलनायिका के रूप में ही स्वीकार किया है ! आज भी समाज में कोई भी व्यक्ति अपनी बेटी का नाम कैकयी अथवा मंथरा नहीं रखता है!

मेरा समाज  से अनुरोध है कि उपरोक्त चरित्रों को सामान्य व्यक्ति मानते हुए इनके मनोविज्ञान को समझते हुए इन पात्रों को खलनायिका के लेबल से मुक्त करे !  
                                                                           
   


Monday, 30 May 2011

श्रद्धा बनाम व्यवसाय

भावना  मनुष्य के अंतरमन के विचारों का संकलन हो सकता है भावना किसी व्यक्ति के प्रति अच्छी अथवा  बुरी भी हो सकती है भावना अच्छी या बुरी होने के कई कारण हो सकते है वैसे कई बार बिना किसी कारण के हम किसी व्यक्ति विशेष के बारे में अच्छी या बुरी भी भावना रखते है ! कभी कभी कोई व्यक्ति जिससे हम बहुत कम मिले हों या उससे हमारा कोई लेना देना भी नहीं है  फिर भी बिना किसी वजह के वह व्यक्ति हमें अच्छा नहीं लगता लेकिन इसके ठीक विपरीत कोई व्यक्ति बिना किसी कारण के ही हमें अच्छा लगता है! कई बार एक ही स्थान पर एकत्रित हुए लोगों में एक जैसी भावना हो यह आवश्यक नहीं है ! व्यक्ति की भावना पर स्थान, परिस्थिति, संस्कार व् व्यक्तिगत सोच व् अन्य कारण का भी प्रभाव पड़ता है  

ईश्वर के प्रति श्रद्धा भावना  भी उपरोक्त बातों  से ही प्रभवित होती है  साथ ही साथ  हमारी धर्मभीरुता भी एक  कारण होता है ! हम मंदिर में जातें है तब हम याचक होते है ! याचक होने के कारण हमारी भावना मंदिर में पूजा करने वाले पुजारी से अलग होती है ! रोज मंदिर में पूजा करने  वाले  पुजारी क़ी ईश्वर के प्रति  श्रद्धा    भावना और आपकी भावना एक जैसी नहीं हो सकती! बल्कि मै तो कहूँगा की पुजारी के मन में उस वक्त श्रद्धा जैसी कोई बात ही नहीं होती , क्योंकि पूजा करना उसकी दिनचर्या है उसका व्यवसाय है ! हम सभी ने कई बार यह अनुभव किया होगा हम किसी मंदिर जाते है तो पुजारी की यह अपेक्षा होती है की चढ़ावे के पैसे दान पेटी में न डालते हुए आरती क़ी थाली में ही डाले और कई बार तो कुछ पुजारी लोग स्पष्ट रूप से आप को बोल ही देंगे कि चढ़ावे के पैसे आरती कि थाली में ही डाले !
ऐसा भी अक्सर होता है कि यदि हम प्रसाद के रूप में मिश्री अथवा चिरोंजी दाने ले जाते है तो पुजारी उस  प्रसाद में से  थोडा सा निकाल कर बाकि आपको लौटा देता है और यदि हम प्रसाद के रूप में अच्छी मावे कि मिठाई ले जाते है तो पुजारी प्रसाद में से अच्छा खासा हिस्सा निकाल कर बाकि आपको लौटा देता है ! इस संदर्भ में  मै  एक वाकया बताना चाहूँगा ! एक बार हम कुछ मित्र शाम के समय टहलते हुए शहर से दूर एक पहाड़ी पर जा रहे थे वहां  एक हनुमान जी का मंदिर था सभी  ने सोचा हनुमान जी के दर्शन भी कर लेंगे इसलिए प्रसाद के रूप में अच्छी सी मावे की मिठाई ले ली ! चूँकि मंदिर के पुजारी का  भक्त व् भगवान के बीच प्रसाद बटवारे  के बारे में कुछ अच्छा अनुभव नहीं था अत: यह तय किया गया  की ईश्वर तो सभी जगह है, इसलिए एक पत्थर के सामने थोडा सा प्रसाद रख दिया व् बाकि सब मित्र लोग चट कर गए !  इसमे जरा भी अतिश्योक्ति नहीं है ! हो सकता है बहुत लोगों के साथ एसा हुआ हो  लेकिन कुछ लोग इस तरह का अनुभव व्यक्त करने में संकोच करते है ! हालंकि सभी  पुजारी  लोगों कि मानसिकता एक जैसी हो यह जरुरी नहीं है न मेरा इरादा किसी विशेष समुदाय को बदनाम करने का है ! लेकिन व्यवहारिकता में एसा होता है  इसको कोई नकार नहीं सकता  मात्रा  कमोबेश कम ज्यादा हो  सकती है !          
अभी पिछले दिनों हम लोग ओमकारेश्वर दर्शन के लिए गए थे ! सभी धार्मिक स्थानों की तरह वहां पर भी तथाकथित ईश्वर के प्रतिनिधि हम लोगों के पीछे लगभग चिपक ही गए अभिषेक करवा देंगे पास से दर्शन करवा देंगे जो भी आपकी  श्रद्धा हो आप दे देना, वगेरहा वगेरहा ! दर्शन करके बाहर आये तो हमारे साथ  आये एक पति पत्नी को अंततः उन्होंने घेर ही लिया और मंदिर के दालान में बैठ कर कुछ दो तीन मिनिट मन्त्र पढ़े और एक हजार एक की मांग रख दी और अंत में काफी सौदेबाजी के बाद पांच सौ एक  में बात बनी ! मै व्यक्तिगतरूप से इन सब बातों के  सख्त खिलाफ हूँ ! अरे ईश्वर व् भक्त के बीच में किसी तथाकथित प्रतिनिधि की क्या आवश्यकता है !लेकिन एक बात तो  मानना पड़ेगी की  पण्डे लोगों को  श्रद्धालुओं का मनोविज्ञान  पढने की कला  इतनी अच्छी तरह आती है , कि इनका  बाण अचूक लगता है ! किस तिल्ली में कितना तेल है ये बहुत अच्छी तरह से जानते है ! क्योंकि ये इनका व्यवसाय है रोजी रोटी है ! इसी कमाई से ये अपना और परिवार के पेट भरते हैं !

अत: धर्मिक स्थल आपके लिए श्रद्धा के  स्थान हो सकते है लेकिन पंडो की यह व्यवसाय स्थली है !